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क्रूरता का निर्लज्ज नजारा

सतना। सरकार तो सरकार होती है उस सरकार के पास किसी मजलूम, शोषित पीडि़त और वंचित की आवाज नहीं पहुंचती। आजादी के बाद से देश और प्रदेश की सरकार उन्हें चाहे जितना भी दावा किया हो कि हमने देश और प्रदेश का विकास किया है, पीडि़त और परेशान लोगों के जख्मों पर मरहम लगाए हैं। बुनियादी सेवाओं में इजाफा किया है शासकीय सेवकों को जिम्मेदार बनाने की कोशिश की गई है यह सारी बातें सिर्फ कागजी तब साबित हो जाती है जब एक पीडि़त अपनी पीड़ा को अपनी वेदना को संवेदनशील मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने रखना चाहता है और सिस्टम उसकी आवाज को दबा देता है सिस्टम उसकी आवाज का गला घोंट देता है।
गौर से देखिए इस वीडियो को यह वीडियो है सतना का जहां एक विकलांग व्यक्ति प्रदेश के संवेदनशील मुख्यमंत्री से अपनी पीड़ा अपनी वेदना कहना चाहता है लेकिन संवेदनहीन सिस्टम किसी पीडि़त और मजलूम को कितनी बेरहमी के साथ उसकी आवाज का गला घोंटता है इससे स्पष्ट बानगी आपको क्या मिलेगी। आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी इस देश के पीडि़त मजलूम शोषित और वंचित व्यक्ति को अपनी व्यथा सुनने का भी अधिकार नहीं है आखिरकार यह कैसी आजादी है। भारतीय जनता पार्टी के लोग बड़े-बड़े मंचों से जिस तरीके के भाषण का झरना बनाते हैं और कहते हैं कि हम दीनदयाल उपाध्याय की उस विचारधारा के व्यक्ति हैं जो अंत्योदय की धारणा पर काम करता है कहने का अभिप्राय साफ है कि समाज के उसे अंतिम व्यक्ति के पास तक की योजनाओं का क्रियान्वयन होना चाहिए लेकिन इस तस्वीर को देखने के बाद तो दीनदयाल उपाध्याय की भी आत्मा कराहने लगेगी।
सबका साथ सबका विकास जैसे नई इस तस्वीर को देखने के बाद ऐसा लगता है कि यह नारे सिर्फ नारे हैं इसका आम जनता के दुख दर्द से कोई साबका का नहीं है। ऐसा नहीं है कि इस तस्वीर को भारतीय जनता पार्टी के जिम्मेदार लोगों ने नहीं देखा होगा लेकिन इस तरीके की तस्वीर देख लेने के बाद भी उनके सफेद से आप कुर्ते पर कोई असर नहीं पड़ता क्योंकि यह कलफदर कुर्ता भी आम आदमी की भावनाओं को रौंद कर ही बनाया जाता है। अब आम आदमी की चिंता किसे है अब तो चुनाव भी नेता प्रबंधन से जीतने लगे हैं। ऐसे में आम आदमी की चिंता किस नेता को है। जब पूरी कुएं में ही भांग मिलाकर कुएं का पानी नशीला बना दिया गया हो ऐसे में आप शुद्ध पानी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। चुनावी समय में भी यदि एक विकलांग की व्यथा और पीड़ा का जिस तरीके से दाह संस्कार किया गया उसे देखकर तो किसी भी मानवतावादी व्यक्ति की आत्मा द्रवित होती है लेकिन जिससे हम मानवता की उम्मीद करते हैं जब उनके हाथों में लाठी और बंदूकें हो किरदार क्रूरता का हो तो भला एक विकलांग की पीड़ा कराह और वेदना को कान में रुई डालकर बैठने वाले सुन भी कैसे सकते हैं उन्हें तो सिर्फ अदानी और अंबानी की आवाज सुनाई देती है।
आम जनता की पीड़ा का कलरव गान सुनने का वक्त किसके पास है। अफसोस तो इस बात का है पूरा सिस्टम आम आदमी की पीड़ा और व्यथा सुनने के लिए तैयार ही नहीं है यदि ऐसा नहीं होता तो यह खाकी वर्दी उस विकलांग को यदि प्रदेश के मुख्यमंत्री के पास ले जाती तो कौन सा ऐसा अपराध हो जाता। जिस तरीके से यह विकलांग मामा मामा चिल्लाता रहा और मामा की सुरक्षा में लगे हुक्मरान बड़ी बेरहमी के साथ उसे मामा से दूर कर देते हैं। यह बेरहम हाथ उस समय भी इतनी ही क्रूरता दिखाते जब उनके घर का कोई इसी तरीके से विकलांग व्यक्ति किसी जिम्मेदार व्यक्ति से उम्मीद लगाकर अपनी पीड़ा और व्यथा कहने जाता।

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